Monday, September 2, 2019

सावन

छलक जाते हैं वो आंखों से ,
जो एक गांठ बनकर ,
उन तारों को हम फिर कागज़ में पिरोते हैं ।
रखी हुई यादों की वो पीली सी गट्ठर,
हम ढूंढ कर ताखों पर फिर संजोते है ।
कई बार यूँ भी हुआ उनका कहकहा ,
हम 5 के तापमान पर पंखा झोलते है ।
ओस की आस में सूरज को देखते देखते ,
कई बार रास्तों में पलाश ढूंढते है ।
लो आ गया झूमता फिर सावन का महीना ,
लो हम फिर एक बार हंसी बोते हैं ।
तूलिका ।