Sunday, August 21, 2011

नव- नीड़


नव- नीड़

वो आज फिर ,
घर से निकला !,
कुछ डरा ,कुछ सहमा ,
नई चिंताओं का लिए बसेरा ,
रात्रि का अंतिम प्रहर,
और वो राही अकेला ,
वो आज फिर ,
घर से निकला !  !

कंकरीली सड़क पर किसी का न पहरा ,
तिमंजिले मकानों पर न बल्ब का है सेहरा ,
चुप ,धुप्प , रास्ते में ,
न कुछ था नवेला ,
कही दूर दिख रहा था,
जुगनुओं का ठीला,
की वो आज फिर,
घर से निकला !

छोटी ने हंसकर था गले लगाया ,
धीमी मुस्कान भी मिली ,
जिसे "उसने" जीवन में अहम् था बनाया ,
की दो तयार झोलों ने ,
फिर उसे मुह चिढाया ,
कुछ अह्तियतों को उसे सीखला ,
की वो आज फिर ,
घर से निकला ! 

वो सक्षम है ,वो दक्ष है 
उत्थान ही उसका  का लक्ष है ,
सत्य का साथ ले ,
छल कपट उसको नश्य है ,
कई  अनकही आवाजों को सुनकर 
कई बार है वो पिघला 
की वो आज फिर,
 घर से निकला !


वो पुत्र है ,
पति है .
पिता है अकेला ,
कई बार उसने कई वार है झेला ,
अनजान है उन,
तीखारों ,तीरों , प्रहारों  से ,
जो अनायास ही  निकल रही ,
और पिताओं व भाइयों  की तलवारों से ,
टाल मटोल के कई साल ,
कई महीने ,कई हफ्ते ,
कई दिनों ने उसे है खूब ,
और खूब ठेला....
की वो आज फिर ,
घर से निकला !

घोसले में है उसके सिर्फ दो पखेरू ,
जिन्हें खूब ऊँचा है उड़ना सिखाया ,
बादल गरजे, 
हवाएं मोड़ें ,
या जब कभी गर्म लौ  ने सताया ,
अडिग रह सिर्फ उसने उड़ना बताया ,
व्यथा घाव को भी वो नम दिखला .
की वो आज  फिर,
घर से निकला !

घर से निकलने  पर ,
उसके पखेरू ने है ठाना  ,
की पिता की तरह 
ही  चुगना है ,न झुकना है ,
न डरना सिर्फ उड़ना है  ,
और पिताओं के वादों के पार कहीं ,
जहा पिली हंसी ,
न गीली हो डाल सही  ,
मीठे बोल ,
खिलखिलाते हो गाल वही 
लगायेंगे सवारेंगे वो अपना बसेरा ,
और फिर ,
वहा से निश्चिन्त ,
वो ना  डरा ,ना सहमा ,
न शिकन न गहमा ,
सुनी सड़क पर भी कारवे के साथ चलता 
इठलाता ,टहलता घर से निकलेगा !!!

तूलिका 



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