उनके सपने
बहुत दिन बाद आज कलम चली है ,
पड़ी थी कही छिपी दुबकी ,
धूल खाती मेज़ पर ,
किताबों ,पत्रिकाओं ,तितरी बिखरी फिल्म डीवीडीओं के बीच ,
आज यह मिली है ,बहुत दिन बाद कलम चली है |
कभी' दिनकर 'की कविता पढ़ी थी ,
कलम आज उनकी जय बोल ,
मिली कलम को देखकर ,उठाकर ,स्पर्श कर
अनायास ही उँगलियाँ व्यथित हो उठीं है ,
और मन को झंकृत कर कहती है ,
जिन्दगी के जो लम्हे तुम्हे ,
पलटने ,सिमटने ,झटकने की चाह रखते है ,
उन्हें तुम कलम से मिलवा दो ,फिर देखो ,
ये किस तरह तुम्हे उनसे दूर निकालकर,
चल पड़ेंगी ,लड़ पड़ेंगी ,भिड़ पड़ेंगी ,
जिनके सामने तुम असमर्थ हो ,
यह सोच कर मेरी कलम चल पड़ी है |
मेरी माँ ने कहा था तुम जा तो रही पर तुम लड़की हो ,
तुम्हे संभलना और संभालना है ,
जूझना है सुलझाना है ,सुनना है और समझना है ,
न गिरना है पर उठाना है ,
क्यूकि मैंने भी यही किया है ,
यही नियति है ,
और तो और यही परम्परा चहेती है ,
माँ ने तब कहा था मेरे लिए तो यह अलग ही प्रकृति है
क्यूंकि मै माँ हूँ बेटियों की ,
माँ आपको लगता है आप माँ है बेटियों की ,
यह प्रकृति आपकी विलग है ,
यकीं मानिए सिर्फ बेटियों की माँ की बेटी होना भी
छवि अलग है ,
एक ऐसा अहसास जो चारो तरफ से घुमावदार है ,
आप कहीं पर भी जाइये ,
उपलब्धियों के नज़दीक या प्रधान के करीब ,
अकेली तंग दीवारों से घिरी हों
या झूठी हंसी से लबालब चेहरों से घिरी हों ,
घूमकर ,टहलकर,फैलकर फिर सिमटकर ,
कही पसीजकर आप वही आजाती है ,
की आप बेटी है ,वो भी सर्फ बेटियों की माँ की बेटी है ,
आप इससे शोभित तो इससे वंचित है ,
इसी कशमकश से कलम रूबरू हो पड़ी है ,
कि मेरे साथ वो चल पड़ी है |
माँ पता है आपके सपने बड़े है ,
और उनकी विशिष्टता इसमें है कि वो हमसे जुड़े है ,
आप कहती है सपने देखो,अनुरूप ढालो ,चलो ,और देखो ,
सपने और वास्तविकता में अंतर नहीं होगा ,
सच माँ ,
मैंने अपने कई सपनों को आपके सपनों के साथ उड़न दी है ,
वो बहुत ऊँचे ,गंभीर ,गहरे और सजग है ,
निश्च्वंद उड़ रहे है ,उस पतंग कि तरह ,
जिसे बनाया भी मैंने ,धागे को परती में डाला भी मैंने ,
और उड़ाया भी मैंने ,
आप पास कड़ी होकर मेरी जीत में
औरों कि पतंगों को कटती हुई देखती है ,
हल्का मुस्कुराती है ,लेकिन आप उस तरह मचलती नहीं ,
जिस तरह सामने कि छत पर ,
चिंटू और मीता पतंग काटने पर खुश होते है |
क्यूंकि जिस तरह ज़िंदगी बदल रही है ,
आपके सपने भी बदल रहे है ,
आप चाहती है कि पतंग बनाऊ तो मै ,
लेकिन धागे को परती में डालकर उडाए कोई और ,
फिर आप नहीं मै पास कड़ी होकर ,
और पतंगों के कटने पर ,हंसूं मचलूँ ,
और कटी पतंगों को छत से समेटकर छत के ही कोने पर रखती चलूँ ,
जिसे अकेले में देखकर आपको अहसास हो,
कि अब आप माँ नहीं है सिर्फ बेटिओं की|
सच माँ ,प्रवर आकाश पर मै खुद पतंग बन उड़ना चाहती हू,
आपके सपनों उम्मीदों और उस अनोखी पतंग के साथ ,
जिसे आप सिर्फ उड़ते देखना चाहती है ,
फिर निश्छल तृप्त मुस्कुराना चाहती है ,
उन्ही रंग बिरंगे पतंगों की दुनिया देखकर ,कलम चल पड़ी है |
तूलिका
No comments:
Post a Comment