Friday, August 5, 2011

उनके सपने

उनके सपने


बहुत दिन बाद आज कलम चली है ,

पड़ी थी कही छिपी दुबकी ,

धूल खाती मेज़ पर ,

किताबों ,पत्रिकाओं ,तितरी बिखरी फिल्म डीवीडीओं के बीच ,

आज यह मिली है ,बहुत दिन बाद कलम चली है |


कभी' दिनकर 'की कविता पढ़ी थी ,

कलम आज उनकी जय बोल ,

मिली कलम को देखकर ,उठाकर ,स्पर्श कर

अनायास ही उँगलियाँ व्यथित हो उठीं है ,

और मन को झंकृत कर कहती है ,

जिन्दगी के जो लम्हे तुम्हे ,

पलटने ,सिमटने ,झटकने की चाह रखते है ,

उन्हें तुम कलम से मिलवा दो ,फिर देखो ,

ये किस तरह तुम्हे उनसे दूर निकालकर,

चल पड़ेंगी ,लड़ पड़ेंगी ,भिड़ पड़ेंगी ,

जिनके सामने तुम असमर्थ हो ,

यह सोच कर मेरी कलम चल पड़ी है |


मेरी माँ ने कहा था तुम जा तो रही पर तुम लड़की हो ,

तुम्हे संभलना और संभालना है ,

जूझना है सुलझाना है ,सुनना है और समझना है ,

न गिरना है पर उठाना है ,

क्यूकि मैंने भी यही किया है ,

यही नियति है ,

और तो और यही परम्परा चहेती है ,

माँ ने तब कहा था मेरे लिए तो यह अलग ही प्रकृति है

क्यूंकि मै माँ हूँ बेटियों की ,

माँ आपको लगता है आप माँ है बेटियों की ,

यह प्रकृति आपकी विलग है ,

यकीं मानिए सिर्फ बेटियों की माँ की बेटी होना भी

छवि अलग है ,

एक ऐसा अहसास जो चारो तरफ से घुमावदार है ,

आप कहीं पर भी जाइये ,

उपलब्धियों के नज़दीक या प्रधान के करीब ,

अकेली तंग दीवारों से घिरी हों

या झूठी हंसी से लबालब चेहरों से घिरी हों ,

घूमकर ,टहलकर,फैलकर फिर सिमटकर ,

कही पसीजकर आप वही आजाती है ,

की आप बेटी है ,वो भी सर्फ बेटियों की माँ की बेटी है ,

आप इससे शोभित तो इससे वंचित है ,

इसी कशमकश से कलम रूबरू हो पड़ी है ,

कि मेरे साथ वो चल पड़ी है |


माँ पता है आपके सपने बड़े है ,

और उनकी विशिष्टता इसमें है कि वो हमसे जुड़े है ,

आप कहती है सपने देखो,अनुरूप ढालो ,चलो ,और देखो ,

सपने और वास्तविकता में अंतर नहीं होगा ,

सच माँ ,

मैंने अपने कई सपनों को आपके सपनों के साथ उड़न दी है ,

वो बहुत ऊँचे ,गंभीर ,गहरे और सजग है ,

निश्च्वंद उड़ रहे है ,उस पतंग कि तरह ,

जिसे बनाया भी मैंने ,धागे को परती में डाला भी मैंने ,

और उड़ाया भी मैंने ,

आप पास कड़ी होकर मेरी जीत में

औरों कि पतंगों को कटती हुई देखती है ,

हल्का मुस्कुराती है ,लेकिन आप उस तरह मचलती नहीं ,

जिस तरह सामने कि छत पर ,

चिंटू और मीता पतंग काटने पर खुश होते है |


क्यूंकि जिस तरह ज़िंदगी बदल रही है ,

आपके सपने भी बदल रहे है ,

आप चाहती है कि पतंग बनाऊ तो मै ,

लेकिन धागे को परती में डालकर उडाए कोई और ,

फिर आप नहीं मै पास कड़ी होकर ,

और पतंगों के कटने पर ,हंसूं मचलूँ ,

और कटी पतंगों को छत से समेटकर छत के ही कोने पर रखती चलूँ ,

जिसे अकेले में देखकर आपको अहसास हो,

कि अब आप माँ नहीं है सिर्फ बेटिओं की|


सच माँ ,प्रवर आकाश पर मै खुद पतंग बन उड़ना चाहती हू,

आपके सपनों उम्मीदों और उस अनोखी पतंग के साथ ,

जिसे आप सिर्फ उड़ते देखना चाहती है ,

फिर निश्छल तृप्त मुस्कुराना चाहती है ,

उन्ही रंग बिरंगे पतंगों की दुनिया देखकर ,कलम चल पड़ी है |


तूलिका

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