Monday, August 22, 2011

उत्पत नील


उत्पत नील 

सपनो का बनना और उनका चटकना ,
की दिल के कई रागों का यूँ सरकना ,
ना आंधी हिलाती ,ना गगन का गरजना ,
अगर साथ होता दो राही का मिलना ,
हों मंजिल अलग ,हो कारवां अलग ,
ना टूटते ,वो साथ लय का खनकना ,
वो हँसते ,मुस्कुराते ,अरमानो का बनना ,
वो आपसी फसानो ,नज्मों का नगमा ,
बनते ,सवरते ,चहकते ,महकते ,
अगर मानते वो ना दुनिया कहना ,
जो कहती है ,सुनाती है ,टीसती है सताती है ,
है काम जिसका सिर्फ लौ सा धधकना ,
ना सवारेगी  ,उठाएगी ,सिर्फ ये तिखारेगी ,
की ये है फिसलना ,ये है भटकना ,
ना बनते अरमान ,राख अस्थियाँ ,
दृढ रहता अगर तुम्हारा साथ चलना !


(मुख्पुस्तक पर मित्र के वॉल पोस्ट के प्रतिउत्तर  में रचित )


तूलिका 

2 comments:

  1. Well,the depiction of expression in the above piece of poetry is awesome and the most important is that the charisma of poetry has been kept alive without ample use of metaphors.
    Although,I am not a scholar of literature but influenced with the use of simple words organised in poetic rhythm.
    regards,

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  2. सिर्फ वेदना सम्म्वेदना की शब्दों में प्रस्तुति है ,कविता पढने और उस पैर सरसरी निगाह डालने का शुक्रिया

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