Thursday, November 16, 2017

संवेदनाएं

संवेदनाएं 

माँ कहती है तुम छुटपन से बहुत संवेदनशील थी ,
किसी  को रोता   देख रोने लगती थी  ,
फैमिली फिल्म देखकर ज़रूर रोती थी,
गुलशन ग्रोवर ,अम्ब्रीश पूरी प्रेम चोपड़ा जी से  मैंने नफरत ग्रेजुएशन में ख़तम की ,
कॉलेज डेज़  में  मेरे कैंटीन खाते  पर बहुतों ने लंच किया है ,
आर्ट एंड क्राफ्ट क्लास में ,  मेरा सामान सार्वजनिक होता था .
छुट्टियों में मित्र हमेशा मिस कॉल दिया करते थे ,
और मेरे काल करने पर 20 मिनट से कम  बात नहीं होती थी ,
हॉस्टल में मेरा कमरा अड्डा (विषय चर्चा) हुआ करता था ,
जहाँ चाय और मैगी कभी भी उपलब्ध होती थी ,
गला ख़राब होने पर मेरा अपना फ्लास्क किसी और की टेबल पर मुस्कुराता था ,
मास्टर्स डेज़  में मेरी 1GB की पेन ड्राइव किसी के भी हाँथ में मिल जाती थी ,
आज भी मेरी बहुत किताबें ,फिल्म dvds किसी की शेल्फ पर अपनी आइडेंटिटी सजो रही होंगी ,
इन संवेदनाओ के साथ अहम् रिश्ते मैंने बनाये है ,रिश्ते बन रहे है ,
आज भी मुझे इंजेक्शन और डेटोल देखकर आंसू आता है, 
लेकिन इन संवेदनाओ के बीच अच्छा लगता है जब 9 .3 0 pm पर आपकी कॉल बेल बजती हो  ,
और बहुत ही खास माननेवाले  बेटाडीन लिए खड़े हो (टेक्स्ट से मालूम था की ऊँगली में  चोट आ गई है )
आपको यकीन होता है की आपकी माँ सही कहती हैं  ,
आपके रिश्तों में संवेदनाएं है और रहेंगी। 

तूलिका

Tuesday, August 8, 2017

ऋतु

खनक की ,
ठनक की
राग की ,
विराग की,
करार के इंकार की ,
उन झूठे वार की ,
स्वयं से तकरार की ,
सम्मान के ज़ार की ,
प्रोजेक्ट्स के यार की
अंगों के प्यार की ,
अंग्रेजी सरकार की
मेल खाते विचार की ,
आज़माइश है तुमसे ,
ख्वाइश है तुमसे ,
कम स कम
बसंत से धोखा मत करना
बसंत जीवन की ,
तुम्हारे जीवन की
सदाबहार ऋतु है .
तूलिका





बसंत

पांच साल में ,
जेठ की धूप ही देखी,
खुशगवार तो तुम रहे ,
सदाबहार बसंत ,
साल की चार ,
नहीं छह
नहीं
बारह महीने
बसंत ही बसंत
तीन वर्ष से बसंत
बसंत ही बसंत
खुश हूँ ,
इस जेठिली दुनिया में
तुम्हारे पास बसंत ऋतु है
बसंत ही बसंत .
ऋतु .
तूलिका .

Friday, August 4, 2017

अपना घर

अपना  घर
जहाँ चिड़िया रोज़ मुंडेर पर आती है ,
जहाँ कबूतरों की आवाज़ एक वाइब्रेटर होती है
जहाँ नलके अपने समय पर चलते है
जहाँ किचन में तीन पहर हलचल होती है
जहाँ डाइनिंग टेबल की कुर्सियां
दो बार अपनी जगह बदलती है ,
जहाँ हर संडे वाशिंग मशीन चलती है ,
जहाँ बालकनी की रेलिंग,
संडे सुबहसाफ की जाती है
जहाँ आँगन में संडे को धुप ली  जाती है
जहाँ सोफे पर बच्चे की कार चलती है
जहाँ लैंडलाइन का रिसीवर ,
बच्चा हटा देता है ,
जहाँ क्रिसमस ट्री पर ,
सेंटा मुस्कराता है
जहाँ तुलसी क़े पौधे को
शाम का दीपक जलता है
जहाँ सुबह गमलों से बात की जाती है
जहाँ धोबी शनिवार को कपडे दे जाता है
जहाँ छुट्टी क़े दिन ,
पुरे समय टीवी चलता है ,
जहाँ रात में धीमी  लाल लाइट जलती  है ,
वो घर अपना घर है
तूलिका

Wednesday, August 2, 2017

घर

घर
शीशे पर अब भी अनगिनत बिंदियां होंगी ,
ड्रावर में कई चूड़ियां होंगी ,
कई जोड़े चप्पल दरवाज़ों की कोनो पर होंगे ,
वो लाल ज़रीवाली चप्पल अभी भी टूटी पड़ी होगी ,
शायद चादर के रेशे में एक जोड़ी बिछिया होगी ,
एक छोटे संदूक में पायल  और बालियां भी ,
पूजाघर में मेरी रामायण होगी ,
चूल्हे के नीचे रैक में
कई मसाले होंगे ,
ऊपर की शेल्फ में ,
चूल्हे के बायें तरफ ,
बादाम का पैकेट होगा ,
दीवारों पर मेरे अरमान होंगे ,
बुकशेल्फ पर मेरी इक्छाएं होंगी
रोशनदान से मेरी यादें झांक रही है ,
मेरे सपने से सजे  ,
रंगीन पर्दों को ,
मेरे अपने  घर में .
तूलिका 

आकार

आकार
सुकून है कि तुम किसीके तो अपने हो ,
गम इसका कि अपनों के सपने हो  ,
सपने टंगे थे ,
सपने लगे थे ,
खड़े थे , बैठे थे ,
झांक रहे थे ,ताक रहे थे ,
निहार रहे थे ,आभार रहे थे ,
चुम रहे थे ,झूम रहे थे
घूम रहे थे ,
अब सपने पक रहे है ,
जल रहे है ,कट रहे ,
मिट रहे है ,बन रहे है .
अब सपने दिख नहीं रहे ,
फुट रहे है ,खिल रहे है ,
आकार ले रहे है ,
सपने साकार हो रहे है .
तूलिका .

Thursday, July 27, 2017

अर्चना

सूखे पत्तों सी
खरखराती सी ज़िंन्दगी में ,
सावन के झूलों का आना जाना
आँखों के पानी  के दाग
जैसे छुपते हुए भी चश्मे के
शीशों से झाँकने लगते है .
जो मिलता है ,चौकता है
अरे तुम्हारे साथ ?
खैर सभालो अपने आपको  
संभाल ही रही थी ,
सम्भालूंगी भी ,
पर कंधे ही तो है
दुखते है ,
नादान है कमज़ोर नहीं .
आग जोलगी  है ,
सुलग रही है .
सावन की बारिश को
जैसे तरस रही है
नारंगी रंग हल्का काला सा है
मिटटी को राख का इंतज़ार सा है
और मुझे मिटटी और राख के मिलने का
मुझेएक पौधा लगाना है .
तूलिका


Saturday, July 8, 2017

ज़ार ज़ार

ज़ार ज़ार
मेरा इन्तिज़ार ज़ार ज़ार रहा
तुम्हे इकरार कहीं और रहा
मै सब्र की आहें  फैलाई रही
तू बेसब्र कहीं और रहा !
मेरा इन्तिज़ार ज़ार ज़ार रहा

मेरी रूह तुम्हे इंकार रही
तुम्हे इकरार कहीं और रहा
मै ख्यालों में ढूंढती रही
तू बाँहों में कही और रहा
मेरा इन्तिज़ार ज़ार ज़ार रहा

वो पुदीने की चटनी ,
वो सब्ज़ी पुलाव ,
छन छन कर जलते रहे अलाव
मै मद्धम आंच में पकती रही
तू प्यालों को वही सजाता रहा
मेरा इन्तिज़ार ज़ार ज़ार रहा
तूलिका

Friday, June 30, 2017

ज़िक्र

ज़िक्र

मै हूँ नहीं मेरा ज़िक्र बहुत है ,
काश होता ,
तुम्हे मेरी फ़िक्र बहुत है !
हसीन सपनो को सहेजा था मैंने ,
करीने से कमरे को सजाया था  मैंने .
वो साइड टेबल की टेबल लैंप ,
अब भी जलती होगी ,
वो लाल मद्धम रौशनी ,
ढूंढती होगी ,
उसे कई बार साफ किया था मैंने ,
मै हूँ नहीं मेरा ज़िक्र बहुत है ,
काश होता ,
तुम्हे मेरी फ़िक्र बहुत है !
तूलिका





Monday, June 26, 2017

कहीं भी

कहीं भी

रूह है ,नहीं भी,
पास है दूर  भी,
रात है बात भी,
आस है खास भी!

दर्द उबलते रहे,
लौ को मध्यम कौन करे ,
ख्वाब जलते रहे,
तुम देखते रहे!

सिलवटे अभी तनी है ,
जानते है भी नहीं,
सिक रही है रोटियां ,
मेरे अश्कों को लिए!

जो दिख रहा , मेहमान है,
हुमज़ुबाँ है नहीं,
दरिया वो बह चला,
हवाओं को लिए !
रूह है ,नहीं भी,
पास है दूर  भी!
तूलिका


Sunday, June 25, 2017

बोल दो

बोल दो

आज सच बोल दो ,
झूठ की मज़ार पर
मत बिठाओ मुझे
आज सच बोल दो

वो आग क्या है
जो जला रही है ,
तुम्हे ,मुझे ,
तुमसे ,मुझसे जुड़े सभी लोगों को ,
बर्फ के टुकड़े ले आओ ,
वो पुरानी सिल्ली नहीं .
जो दफना दे मुझे
आज सच बोल दो

दिन कटते नहीं ,
रात जगती रही
न कुछ बोलकर ,
सब कहती रही ,
धुआँ ही धुआँ
दिख रहा है मुझे
धुएं की शाख पर
ना बिठाओ मुझे
आज सच बोल दो !
तूलिका

Sunday, June 18, 2017

अलविदा

अजनबी बनकर तुम मिले , दो पल साथ चले ,
मै कहीं थमी निहारती रही ,तुम हाँथ छुड़ा कर कही चले ,
शरद चांदनी रात थी ,बूंदा बांदी पास थी ,
मंदिर के घंटो की ,थोड़ी धीमी आवाज़ थी .

तुम मिल गई ,सब मिल गया ,वो चली गई मै भुला दिया ,
तुम साथ रहना बस देखना ,यह कह कर तुमने भुना लिया ,
कुछ वादे हुए समझौते हुए ,कुछ शरारत ,नोके झोके हुए ,
नए सपनो की उड़ान लिए ,हम तुम्हारे साथ चल दिए ,

जल्द ही हमारा बचपन आया और तुम पहलु बदल लिए ,
जिन पंखो को आगाज़ मिला तुम उनको ही क़तर दिए ,
ये हो ना सका ,तुम कर ना सकी, वादी ,प्रतिवादी तुम खेल लिए ,
मै झेल रही ,तुम देख रहे ,जलते अंगनरों को ठेल रहे  ,

तसल्ली इसकी है मुझको ,तुमको आज यहाँ खड़ा किया ,
जिसकी क्षमता' को आजमाकर तुमने दामन छुड़ा लिया ,
पंचवर्षीय योजना में मै शत प्रतिशत सफल रही ,
तुमको दिशा दिखा दिखा कर खुद पथ से विहीन  हुई ,

ख़ुशी है इस काबिल तुमको मैंने बना दिया ,
की मूछों को ताव देकर तुमको कही थमा दिया ,
आज मै दिशाहीन चरित्र हीन हो गई ,
चार अंकों को गिनने लायक ,तुमको पद वीन बना दिया ,

कभी आइना देखना ध्यान से ,कहीं चमक से चटक ना जाये ,
मेरे अरमानों के दरख़्त से ,कही शीशा खटक ना जाये ,
इत्र तो बाजार में बहुत मिल जायेंगे मेरे दोस्त ,
समर्पण  के रंग अब कभी खनक  ना पाएं!

ख़ुशी इस बात की तुम्हारे रंग फ़ैल रहे ,
गम इस बात का हम अपनी खुशबु समेट रहे !
तूलिका







पिता

सच सीखा ,
स्वाभिमान सीखा ,
ईमानदारी सीखी ,
उड़ान सीखा ,
वज़न सीखा ,
वचन सीखा ,
झूठ से परे ,
अमन सीखा ,
तंगहाली में भी करम सीखा ,
अभिमान नहीं  मान सीखा ,
जलन नहीं ,सम्मान सीखा ,
उमीदों का पैगाम सीखा ,
काँटों में मरहम सीखा ,
मकान नहीं छत हो तुम .
हम सबकी जड़ हो तुम ,
पिता नहीं सर्वस्व हो तुम !
तूलिका 

Friday, June 16, 2017

गुलाबी

गुलाबी

आज फिर ऊँगली कट गई .
आज फिर सफ़ेद आलू गुलाबी हो गए
आज फिर बच्चे ने कहा .
ये क्या हो गया मम्मा?
रुको थर्मामीटर लाता हूँ ,( बेटे के लिए हर मर्ज थर्मामीटर से ठीक होना माना जाता है )
चलो चप्पल पहनो,
चलो डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा !
उसको कैसे बताऊ ,
ये गुलाबी आलू ,
गुलाबी सी ज़िन्दगी है ,
जो काँटों में खिल रही है ,
टहनियां कड़क है ,
लेकिन सूरज से मिल रही है ,
अब लहू का वो रंग नहीं रहा ,
अब ये धब्बे कुछ अलग से है ,
सुर्ख लाल नहीं है ,
शोखी कही साहस में बदल रही है ,
आँखे नमी से गुलाबी ,
हाँथ गुलाबी ,
मौसम गुलाबी
गुलाबी सी ज़िन्दगी है ,
जो काँटों में खिल रही है ,

तूलिका

Monday, June 12, 2017

चेहरा

किधर से किधर तक ,
है गुम्नाम चेहरा !
पड़ोसी है या पहना कोई सेहरा ,
माना था सम्बल ,
था रिश्ता उससे गहरा ,
किधर से किधर तक ,
है गुम्नाम चेहरा !

औटो से आना ,
बच्चे का खाना ,
दो दूध का पैकेट ,
ब्रेड और मखना ,
टिफिन का झोला ,
कंधे पर,
दो बैगो को और सजाना ,
किधर से किधर तक ,
है गुम्नाम चेहरा !
पड़ोसी है या पहना कोई सेहरा

ना कोई फोन खनका ,
तुम्हारा उधर से ,
ना तुम्हारी कोई ,
आवाज़ आई ,
ना पुछा किसी ने ,
की तुम क्या खाइ ,
की बच्चे ने ओदी थी ना रजाइ
किधर से किधर तक ,
है गुम्नाम चेहरा !
पड़ोसी है या पहना कोई सेहरा

वो कड़कती थी शामे,
ना बिजली थी आती ,
हम मा बेटे ने ,
भए मे कई रातें थी काटी ,
चार कमरे ,
सोलाह दीवारें ,
मा बेटे ने ,गिन गिन गुज़ारे .
तुम्हारी झूठी ओट का था पहरा
जिनकी आखे थी अंधी ,
कान था बेहरा ,
किधर से किधर तक ,
है गुम्नाम चेहरा !
पड़ोसी है या पहना कोई सेहरा .

माना की तुम काबिल बहुत हो ,
फिर तुमने क्यू ये साफा है पहना ,
अपने इरादो के पक्के धनी हो ,
फिर झूठ के परचम तुम क्यू बने हो ,
तुम तो सितारो के सरगम बने थे ,
ये किसके नक्शे कदम पर चले हो ,
कोई ना किसी का है साथ देता ,
पांच साल मे कहा तुम खड़े हो?
कायल बने हो,घायल कर रहे हो,
थोड़ा तो सोचो ,मंथन करो तुम ,
या कही छिपा है कोई राज़ गहरा ,
किधर से किधर तक ,
है गुम्नाम चेहरा !
पड़ोसी है या पहना कोई सेहरा !
तूलिका .







आदतें

मैं लंच तयार करती रही ,
तुम भरा डब्बा वापिस लाते रहे ...
तुम्हारे इरादे से नावकिफ रही ,
तुम इलज़ाम लगाते रहे

राशन ,सब्जी ,फल ,बच्चा ,नौकरी ..
सब इन्तेज़ाम हमारा रहा,
सफ़ेद पन्नो पर ,काले अंको से ,
सब इलज़ाम तुम्हारा रहा ..

तुम आदतन नाकार करते रहे ..
मै आदतन स्वीकार करती रही ..
तूलिका .

Sunday, June 4, 2017

तुम्हे

कितना अच्छा लगता है ,
तारीफें करना तुम्हे ,
झूठ या सच
की फेहरिस्त में ,
लबलबाना तुम्हे .
जो लाज़मी है ,
उसे भुलाकर तुम्हे ,
कितना अच्छा लगता है ,
तारीफें करना तुम्हे ,

काश मैंने भी सुना होता ,
छठी इन्द्रियों की आवाज़
जो सच थी और है
जो मुझे अनजाने तारीफ सी लगी ,
उसे फटकार कर तुम्हे ,
कितना अच्छा लगता है ,
तारीफें करना तुम्हे ,

बंधन की आज़ादी
न भाई तुम्हे ,
पति पिता की उपाधि से ज़्यादा
पुरुषत्व के यश को
चाहा तुमने
कितना अच्छा लगता है ,
तारीफें करना तुम्हे ,

कसमसाई सी मेरी आंखे
काश सुख जाती ,
कहकहों के आदि मेरे कान
काश बधिर हो जाते ,
माँ का दिल
काश पत्थर हो जाता ,
लबलबी मांगों को
काश सौंप पाती तुम्हे ,
कितना अच्छा लगता है ,
तारीफें करना तुम्हे ,

उस सपनो को जीने की
कोशिश की मैंने ,
जिसके लिए
न तैयार कर पाई तुम्हे
कितना अच्छा लगता है ,
तारीफें करना तुम्हे ,

इनको ,उनको ,उसको ,
माँ ,पिता ,भाई ,सबको
अरमानो की छत पर बिठाकर
मुझे ,दफनाया है तुमने
कितना अच्छा लगता है ,
तारीफें करना तुम्हे ,

सुरमई एक छोटी सी ज़िन्दगी में
ख्वाबों का नूर लेकर आई थी मै ,
हसरतो के झूलों को
सावन में देखा था मैंने ,
हाँ सच है कभी झूला नहीं  ,
कभी तुम्हे ठेला नहीं मैंने
गर्मजोशी के अहसास को दबाकर
कभी रोका नहीं तुम्हे
कितना अच्छा लगता है ,
तारीफें करना तुम्हे ,

इल्ज़ामात की फेहरिश्त में ,
ज़ोर आजमाइश की है तुमने
जानकर अनजान बन,
सरेआम नीलामी की है तुमने ,
जो रिश्ता सात फेरों में बाधा गया
उसकी खूंठ छोड़कर
कहकशों को थामा है तुमने
कितना अच्छा लगता है ,
तारीफें करना तुम्हे ,

अपने सेहरे को सड़क पर फ़ेंक कर
कितना सुकून है तुम्हे
किसी के लहू के अंश पर बैठकर
रोज़ इनको उनको सबको
अच्छा  है फुसफुसाना तुम्हे
एप पर मदमस्त ,व्यस्त
वो ब्लेस्ड मानते है तुम्हे
कितना अच्छा लगता है ,
तारीफें करना तुम्हे ,

मेरी कोशिश थी और रहेगी ,
माँ ही सही थोड़ा और बहेगी
आँखों की नमी अब थमेगी
पांच वर्षो में जो पिघला है
वो बर्फ फिर बनेगी
बढ़ेगी ,चढ़ेगी ,चलेगी
मर्यादित  ज़िन्दगी सौंप कर तुम्हे ,
कितना अच्छा लगता है ,
तारीफें करना तुम्हे ,
तूलिका

Friday, June 2, 2017

अरमान

तुम आई तो आई थी मै,
नए रूप में ,
नए धुप में ,
नए छांव में ,
नए ठाँव में ,,
नए गांव में ,
नए नाव में ,
तुम आई तो आई थी मै,

तुम आई तो आई थी मै,
रास्ते नए
मंज़िल नई ,
सफर नया
राही नए
अरमान नए थे ,
सपने नए ,
तुम आई तो आई थी मै,

तुम आई तो आई थी मै,
जानती थी मै ,
कांटे नए है ,
कई उग चले है
झूठे अहसान ,
कई दब चले है ,
कई भिखारी,
नयी मांग ले खड़े है ,
तुम आई तो आई थी मै,

तुम आई तो आई थी मै,
कहा था तुमने .
तुम पतवार बदलोगी ,
नाव मोड़ोगी ,
अक्षर से ,
सम्मान ओढ़ोगी,
सामंजस्य की ओट में ,
इंसान ढूँढोगी ,
तुम आई तो आई थी मै,

तुम आई तो आई थी मै,
जानती थी मै भी ,
वक़्त बदलेगा
तुम भी बदलोगी ,
अरमान सवरेंगे,
वो कहा ठहरेंगे ?
उड़ जाओगी
मुस्कुराओगी .
आँखों की नमी
यही छोड़ जाओगी
तुम आई तो आई थी मै !

तूलिका