घर से निकला !,
कुछ डरा ,कुछ सहमा ,
नई चिंताओं का लिए बसेरा ,
रात्रि का अंतिम प्रहर,
और वो राही अकेला ,
वो आज फिर ,
घर से निकला ! !
कंकरीली सड़क पर किसी का न पहरा ,
तिमंजिले मकानों पर न बल्ब का है सेहरा ,
चुप ,धुप्प , रास्ते में ,
न कुछ था नवेला ,
कही दूर दिख रहा था,
जुगनुओं का ठीला,
की वो आज फिर,
घर से निकला !
छोटी ने हंसकर था गले लगाया ,
धीमी मुस्कान भी मिली ,
जिसे "उसने" जीवन में अहम् था बनाया ,
की दो तयार झोलों ने ,
फिर उसे मुह चिढाया ,
कुछ अह्तियतों को उसे सीखला ,
की वो आज फिर ,
घर से निकला !
वो सक्षम है ,वो दक्ष है
उत्थान ही उसका का लक्ष है ,
सत्य का साथ ले ,
छल कपट उसको नश्य है ,
कई अनकही आवाजों को सुनकर
कई बार है वो पिघला
की वो आज फिर,
घर से निकला !
वो पुत्र है ,
पति है .
पिता है अकेला ,
कई बार उसने कई वार है झेला ,
अनजान है उन,
तीखारों ,तीरों , प्रहारों से ,
जो अनायास ही निकल रही ,
और पिताओं व भाइयों की तलवारों से ,
टाल मटोल के कई साल ,
कई महीने ,कई हफ्ते ,
कई दिनों ने उसे है खूब ,
और खूब ठेला....
की वो आज फिर ,
घर से निकला !
घोसले में है उसके सिर्फ दो पखेरू ,
जिन्हें खूब ऊँचा है उड़ना सिखाया ,
बादल गरजे,
हवाएं मोड़ें ,
या जब कभी गर्म लौ ने सताया ,
अडिग रह सिर्फ उसने उड़ना बताया ,
व्यथा घाव को भी वो नम दिखला .
की वो आज फिर,
घर से निकला !
घर से निकलने पर ,
उसके पखेरू ने है ठाना ,
की पिता की तरह
ही चुगना है ,न झुकना है ,
न डरना सिर्फ उड़ना है ,
और पिताओं के वादों के पार कहीं ,
जहा पिली हंसी ,
न गीली हो डाल सही ,
मीठे बोल ,
खिलखिलाते हो गाल वही
लगायेंगे सवारेंगे वो अपना बसेरा ,
और फिर ,
वहा से निश्चिन्त ,
वो ना डरा ,ना सहमा ,
न शिकन न गहमा ,
सुनी सड़क पर भी कारवे के साथ चलता
इठलाता ,टहलता घर से निकलेगा !!!
तूलिका