Friday, October 11, 2019

कॉफी हाउस

माल रोड के इस कैफ़े के आसपास,
आज भी कोई मॉल नहीं है ,
आज भी कॉफी बीन्स की खुशबू ,
कैफ़े में घुसते ही पचास दशक पुरानी है .
पीली डिम लाइट ,
पंचम और बप्पी दा की संगीत की धुन ,
शे गुवेरा का पोस्टर ,
1977 की बेस्ट कैफ़े अवार्ड की ,
लैमिनेटेड तस्वीर ,
सब वैसे ही है,
जब तुम थीं ।
मैं आज भी हर रोज़ ,
दरवाज़े से बाईं से तीसरी टेबल पर बैठता हूँ ,
जहाँ पीछे को खिड़की खुलती है ,
और तुम मेरे सामने बैठकर ,
बाहर खड़ी कारों को गिनती थी .
सब है बस तुम नहीं हो ,
तुम्हारा अहसास ,
तुम्हारी खुशबू ,
तुम्हारीं बातें ,
तुम्हारी यादें ,
तुम्हारा खालीपन सब ।
सोचता हूँ मेरे इन खुरदरे हांथों को ,
तुम्हारे हाथ फिर से छूते और कहते ,
हम हैं ना ..
मैं आज भी यहाँ फ़िल्टर कॉफी पीता हूँ ,
बस फर्क इतना है शक़्कर नहीं लेता ,
शक़्कर ना कॉफी में है ,
ना ज़िन्दगी में ।

तूलिका ।